July 30, 2012

अभागा दरख़्त

२० जुलाई

दफ्तर के सामने खड़े ठूंठ दरख़्त पर
बरबस निगाह ठहर जाती है
आसपास के पेड़ों पर किसलय
आह! यह कितना अभागा?

हरा- भरा था तब पथिकों को पनाह देता रहा
झुलसे बदन को ठंढक देता रहा
अपने शाखों पर न जाने कितने परिंदों को आश्रय दिए
सूख चुका, फिर भी उसी दर्प से खड़ा है.

इसमें जीवन नहीं है
फिर भी कुछ जीवों का घर है
इस आस में कि जलना है किसी रोज़
किसी दरिद्र नारायण के चूल्हे में
अब भी मौसम की क्रूरता सहता है.

किन्तु सरकार की ईमान इसकी इच्छापूर्ति नहीं होने देगी
जानते हुए... मर चुका है, दरिद्र के घर जलने नहीं देगी.

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