२० जुलाई
दफ्तर के सामने खड़े ठूंठ दरख़्त पर
बरबस निगाह ठहर जाती है
आसपास के पेड़ों पर किसलय
आह! यह कितना अभागा?
हरा- भरा था तब पथिकों को पनाह देता रहा
झुलसे बदन को ठंढक देता रहा
अपने शाखों पर न जाने कितने परिंदों को आश्रय दिए
सूख चुका, फिर भी उसी दर्प से खड़ा है.
इसमें जीवन नहीं है
फिर भी कुछ जीवों का घर है
इस आस में कि जलना है किसी रोज़
किसी दरिद्र नारायण के चूल्हे में
अब भी मौसम की क्रूरता सहता है.
किन्तु सरकार की ईमान इसकी इच्छापूर्ति नहीं होने देगी
जानते हुए... मर चुका है, दरिद्र के घर जलने नहीं देगी.
दफ्तर के सामने खड़े ठूंठ दरख़्त पर
बरबस निगाह ठहर जाती है
आसपास के पेड़ों पर किसलय
आह! यह कितना अभागा?
हरा- भरा था तब पथिकों को पनाह देता रहा
झुलसे बदन को ठंढक देता रहा
अपने शाखों पर न जाने कितने परिंदों को आश्रय दिए
सूख चुका, फिर भी उसी दर्प से खड़ा है.
इसमें जीवन नहीं है
फिर भी कुछ जीवों का घर है
इस आस में कि जलना है किसी रोज़
किसी दरिद्र नारायण के चूल्हे में
अब भी मौसम की क्रूरता सहता है.
किन्तु सरकार की ईमान इसकी इच्छापूर्ति नहीं होने देगी
जानते हुए... मर चुका है, दरिद्र के घर जलने नहीं देगी.
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