October 4, 2011

बीती बातें

दिमाग की तंग
घुमावदार गलियों में
कुछ यादें-
अनकही, कुछ बीती बातें
किसी के कहे
कुछ चुभते शब्द
निरंतर दीवारों से
टकराते हैं
मुझे उकसाते हैं!

अक्सर अनसुना कर देता हूँ
कई बार नज़रंदाज़ करता हूँ
फिर भी
इंसान ही तो हूँ न
आ ही जाता हूँ
कभी-कभी बहकावे में
तब क्रोध जागता है
बदले के भाव
उमड़ते हैं जेहन में
और मन कुछ कर गुज़ारना चाहता है!

क्षण भर बाद ही
अचानक विवेक जागता है
संतुलन बनाने के लिए
पूछता है-
इससे किसका हित होगा?
जवाब नहीं होता कोई
फिर डूबता जाता हूँ
गहन अंधकार में
यह सोचकर
मैं कुछ नहीं कर सकता!

घंटों...
कभी-कभी
कई-कई दिनों की उधेड़बुन से
दिमाग की नसें
तन जाती हैं
अब-तब
जाने कब फट जाएँगी
और प्रचंड वेग से
दौड़ते लहू की धार
फूट पड़ेगी
...ये भी नहीं होता!

आजिज आकर
नाइन एमएम पिस्तौल उठाता हूँ-
आज दिमाग को खाली कर दूंगा
इसमें सूराख कर
रोशनदान बना दूंगा
...ताकि अन्दर चक्कर काटती यादें
बहार निकल आयें
खुली फिजां में
और ताज़ी हवा का झोंका
अंदरूनी हिस्सों को ठंडा कर सके!

पर कायर मन
काँप उठाता है
एक तर्क पेश करता है-
सूराख दो बनेंगे
दो खिड़कियाँ
यानि दो रास्ते!
तब क्या अन्दर घूमती यादें
कन्फ्यूज़ नहीं होंगी?
दोराहा देखकर
क़दम ठिठक नहीं जायेंगे!

द्वंद्व के बाद
एक चिर शांति!
सन्नाटा
और रह जाती हैं
सैकड़ों झींगुरों की
झनझनाहट
जो कहीं ज्यादा खतरनाक है!