November 20, 2012

विधाता

विधाता तुमसे दो प्रश्न-
सृष्टि तुमने रचा?
कितने रंग भरे इसमें?
बस तीन....!!!
देखो, इंसानों ने कितने गढ़ दिए.
अनंत काल से श्रेष्ठ समझे जाते रहे

सर्वोच्च स्थान पाते रहे
प्रासाद में दृश्य होकर भी
अदृश्य रहे!
ढूंढ लिया सदृश कण
कदाचित इंसान तुम्हारे उतना ही करीब है
जितने तुम होकर भी नहीं
किन्तु 'कण' की तरह ठोकर में नहीं.
परदा ऊठ रहा है
नेपथ्य में क्या हुआ
स्पष्ट दिख रहा है
सृष्टि तुमने नहीं रचा.

विधाता! पुनः दो प्रश्न-
भ्रष्टाचार किसकी देन?
तुम या समय
बलवान कौन?
सर्वशक्ति के मद में इतराते रहे!
अनंत काल से पूज्य रहे
प्रकट रूप से कतराते रहे
तुम छलिया....
बलवान तो समय निकला.
भ्रष्टाचार का कलंक
मानव मस्तक पर है
तुम क्यों चढ़ावा पाते हो?

अच्छा....एक प्रश्न शेष-
परलोक...मृत्युलोक...
क्या घनचक्कर है?
दोनों यहीं
दूसरा कोई ज्ञात लोक नहीं
फिर यह भेद क्यों?

.... तो क्या समझूँ?
तुम वो हो जो नहीं हो
या वो हो जो खोज लिए गए!
तुम क्या हो?
कल्पना अथवा साकार
निर्दिष्ट अथवा निराकार?
हा हा हा
मुझे बताना.