August 9, 2011

जीवन का सर्कस

शाम ढली
अँधेरे को विस्तार मिला
चाँद भी खो चूका मद्धम चांदनी
हम भी फिक्रमंद घर को चले.

सड़कों पर बेतहाशा भीड़
आदमी पर चढ़ रहा आदमी
गोया जीवन नहीं
कोई सर्कस का खेल हो

यूँ ही मर जायेंगे
किसी रोज़
करतब करते करते
छुट जाएँगी निशानियाँ
बस रह जायेंगे
मीलों लम्बे रास्ते.


रिक्तता

बार-बार मन उद्विग्न होता है
तब आँखें कुछ तलाशती हैं
कुछ मिलता नहीं
सिवाय रिक्तता
एक शून्य के...

मन और उत्तप्त होता है जब
लेट जाता हूँ
आँखें मूँद कर
देखता हूँ अक्स को
महसूस करता हूँ
सांत्वना देतीं स्मृतियों को
ओझल होते
आहिस्ता आहिस्ता.

आकुल, व्याकुल
मन छटपटाता है
तन के पिंजर को तोड़ कर
निकल भागना चाहता है
क़ैद से
मौत के दिन गिनते/
मृत्युदंड पाए
किसी कैदी की मानिंद.

इस आपाधापी में
ह्रदय पर प्रचंड आघात (!)
एक टीस ubharti है
और पलकों के पोरों से
कुछ बूँदें लुढ़का जाती है.

तन  शिथिल पड़ जाता है
निर्जीव सी
निगाहें जड़ जाती हैं
कालचक्र की भाँती
द्रुत वेग से घूमते पंखे के डैनों पर.

गोलाकार तल
दो इंच मोती वृत्तीय रिक्तता 
यानी बड़ा शून्य
और एक बड़ी chhadm  
वृत्ताकार aakriti
निहारता rahta हूँ
der तक 
अपलक  .

मस्तिष्क सोचने को होता है
पर सोच नहीं पता
साहस कम है
गहरे पैठ नहीं पाता!

तब निष्प्राण तन में
हरकत होती है
एक हाथ हवा में लहराता है
आस पास बिखरे
किताबों, अखबारों के ढेर में
टटोलता है
सिगरेट का पैकेट
और दूसरा हाथ
दियासलाई या लाइटर
पर नहीं मिलता
ग्रीवा को
कष्ट प्रदान कर
सर को चौथाई दायें
चौथाई बाएं
घुमा कर देखता हूँ
और श्वेत दंडिका प्रज्ज्वलित कर
निकोटिन धमनियों में उड़ेल देता हूँ
शरीर प्रतिरोध करता है
लेकिन मैं
फ़िक्र को धुएं में उड़ा देता हूँ.