सबसे पहले नमस्कार उस चमत्कार को जो अप्रत्याशित रूप से दुनिया के सामने आया.अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को शान्ति का नोबेल पुरस्कार मिला है. दुनिया भर में डुगडुगी बज रही है। मजे की बात ओबामा सो रहे थे, उन्हें जगाया गया यह कह कर कि हे महाशक्तिमान! जागो अब तो आपने सर्वोच्च सम्मान पा लिया। अमेरिकियों को तो लग रहा है कि वे अभी सोते हुए सपना देख रहे हैं ...उन्हें भी इस चमत्कार पर घोर आश्चर्य है।
हमें यह बात हज़म नहीं हुई ....साहब दुनिया को भी नहीं हो रही.युगों से संसार को शाति का पाठ हम पढ़ा रहे हैं ...जब पुरस्कार कि बारी आई तो हमें झुनझुना थमा दिया। जिस गांधी के पदचिन्हों पर चलकर ओबामा ने मात्र नौ माह के कार्यकाल में ही यह सम्मान पा लिया...अभी तो चार साल तीन माह का कार्यकाल बचा हुआ है ...लेकिन पाँच बार नाम लिखाकार भी गांधी को यह सम्मान नसीब नहीं हुआ। मतलब गुरु गुड़ और चेला चीनी!
अभी क्या देखा है साहब! ...अभी और बड़ा देखेंगे...आँखें फट जाएँगी जब पाकिस्तान को अपने घर में खडा देखेंगे..पूछिये क्यों? भाई साहब, माई बाप ने पाकिस्तान को ८५ अरब डॉलर की मदद दी इसलिए कि वो आतंकवाद से लड़े, लेकिन वह इसका इस्तेमाल कहाँ करेगा...आपको और और सारी दुनिया को मालूम है...७० अरब डॉलर कि नयी खेप के भुगतान कि घोषणा सम्मान पाने के तत्काल बाद कर दी गयी। मैं कहता हूँ दो चार दिन रुक जाते तो कुछ बिगड़ जाता क्या? पुरस्कार पर जो बवाल उठा है वो तो ठंडा पड़ने देते.नींद से जाग तो जाते पहले!
शायद बहुत कम लोग यह बात हज़म करें। पर है सच। गांधीजी अगर अफ्रीका में ही रहते...नीग्रो के हक के लिए लड़ते तो वे वैश्विक शान्ति के पुरोधा ज़रूर बनते...लेकिन वे पुअर पीपुल, इंडियन पीपुल के लिए लड़ने भारत लौट आए.उनका नाम तो अफ्रीका से ही चमका था न.गांधीजी अहिंसा के पुजारी थे, लेकिन ओबामा सठे साठ्यम समाचरेत में यकीन रखते हैं। इसलिए शान्ति का नोबेल तो उन्हें ही मिलना चाहिए.एक बात और...गांधी को इसलिए भी यह पुरस्कार नहीं मिला क्योंकि भूखे नंगे भारतीय इसे क्या खाक संभालते जब गांधी की तुच्छ वस्तुओं को ही नहीं संभल पा रहे हैं। उनकी चिट्ठियाँ तक नहीं रख पा रहे हैं! मैं कहता हूँ साहब एक करोड़ पुअर पीपुल के लिए लड़ के क्या मिल सकता है किसी को? २०० साल की गुलामी की बंदिश तोड़ने के लिए अहिंसा के रास्ते चलने की क्या ज़रूरत थी? इन सबके लिए दोषी गांधी ही थे।
शान्ति के जिस नोबेल पुरस्कार पर हाय तौबा मची है, ख़ुद ओबामा तक को आश्चर्य है कि यह चमत्कार हो कैसे गया...मेरी नज़र में व्यर्थ की चिल्ल-पों है. जब ख़ुद नार्वे की नोबेल पुरस्कार समिति ने ही कह दिया कि भाई हमने पुरस्कार कि घोषणा करने में जल्बाजी नहीं की.बात तो यहीं ख़त्म हो जानी चाहिए...है कि नहीं! पुरस्कार के लिए इंसान का विरोध भी ज़रूरी है जैसे अफगान नीति पर अपने ही देश में ओबामा की हो रही है। गांधीजी तो का न तो देश में विरोध है और न ही विदेशों में...फ़िर उन्हें क्यों मिले यह सम्मान? ओबामा ही क्यों जिन दर्ज़न भर महान विभूतियों के नोबेल सम्मान पर बवाल मचा वह भी भी निरापद था.