दो सिराओं में बँटी क्रांति
नदी के दो पाटों की भांति।
फिर भी कहते हैं ...
हम क्रांति लायेंगे!
लेनिन नहीं रहे
छूट गया पीछे
लेकिन...
क्रांति करनी है।
क्रांति होनी भी चाहिए
और होगी भी।
किन्तु...
पहले संगठित करना होगा
खुद को
संगठित होना होगा
साथ ही,
दोमुहों से
सावधान भी रहना होगा!
मार्क्स नहीं रहा
रह गया "वाद"
उलझकर इसी वाद में
क्रांति पथ गामी
करने लगे विवाद।
हाय रे!
लेनिन,मार्क्स
तू ही बता
क्या इस रास्ते
आ सकेगी क्रांति?
दोराहे से
किधर मुड़ेगी क्रांति?
नोट : विचार धारा के समर्थक साथियों को शायद यह नागवार गुज़रे, किंतु यह विचार पूर्णतया मेरे निजी हैं.इसे स्वस्थ तरीके से लें.
1 comment:
चिंता काहे करते हैं, जिसे अस्वस्थ तरीके से समझना है, वे पढ़े ही नहीं। आपकी दुविधा को बयान करती है यह कविता..
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