पहले एक थे
अब तीन हुए
(तीन अवस्थायें जीवन की )
आंसू भी तब
मीठे थे ...
अब नमकीन हुए।
तीस बसंत
गुज़रे नज़रों से
शीश झुकाए खड़ा रहा
ज़िद पर एक ही
अड़ा रहा।
जागती आँख का सपना था वह
सतरंगी थे वे
स्वप्न बड़े
एक कमी है बस
करतल में
"वह" डहरीर नहीं!
गिरकर अभी
संभल भी नहीं पता कि
फिर गिर जाता हूँ
अंग-प्रत्यंग चोटिल
थके क़दम
बोझिल आंखें हैं
सोऊं कैसे चिरनिद्रा में
पोर-पोर में
दर्द बसा है।
कौन लगाता मरहम किसको
कौन किसी की सुनता है
सभी सहलाकर हौले से
घाव नया दे जाते हैं!
बहते मवाद की बूँद
गिर सूख चिपक
माटी में मिलती
मानवता काँटों पर पलती
रह जाती एक टीस
नाम ख़बीस
उम्र तीस!
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