August 9, 2011

जीवन का सर्कस

शाम ढली
अँधेरे को विस्तार मिला
चाँद भी खो चूका मद्धम चांदनी
हम भी फिक्रमंद घर को चले.

सड़कों पर बेतहाशा भीड़
आदमी पर चढ़ रहा आदमी
गोया जीवन नहीं
कोई सर्कस का खेल हो

यूँ ही मर जायेंगे
किसी रोज़
करतब करते करते
छुट जाएँगी निशानियाँ
बस रह जायेंगे
मीलों लम्बे रास्ते.


2 comments:

रवि धवन said...

बहुत बढिय़ा कविता लिखी है बाबा। जीवन को सर्कस से भी क्या खूब जोड़ा है।

Asha Joglekar said...

जीवन सचमुच एक सर्कस ही तो है ।