शाम ढली
अँधेरे को विस्तार मिला
चाँद भी खो चूका मद्धम चांदनी
हम भी फिक्रमंद घर को चले.
सड़कों पर बेतहाशा भीड़
आदमी पर चढ़ रहा आदमी
गोया जीवन नहीं
कोई सर्कस का खेल हो
यूँ ही मर जायेंगे
किसी रोज़
करतब करते करते
छुट जाएँगी निशानियाँ
बस रह जायेंगे
मीलों लम्बे रास्ते.
2 comments:
बहुत बढिय़ा कविता लिखी है बाबा। जीवन को सर्कस से भी क्या खूब जोड़ा है।
जीवन सचमुच एक सर्कस ही तो है ।
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