(१)
तुम आईं
तब मन उत्तप्त
जीवन में रंगों के मायने नहीं
दायरे में सिकुड़ी ज़िन्दगी
और देह पर
ककून-सा सघन, सख्त आवरण था
संवेदनाएं फिर भी जीवंत थीं
अकेलेपन से अनुबंध
तुमने ही तोड़ा
साथ चलने का वादा किया
तब आवरण तोडऩे में
थोड़ा वक्त लगा
यह समझने में
शायद तुम वही हो
और कल्पना से निकल कर
यथार्थ के धरातल पर
उतरी हो...
सिर्फ मेरे लिए।
(२)
इस उम्मीद पर
स्वयं को तलाशता रहा
टुकड़ों में बिखरे अस्तित्व
समेटता रहा
तिनका-तिनका जोड़कर
अक्स बनाया
किन्तु...
कुछ रह गया!
(३)
खुशियां बटोरता रहा
यहां रखूं, वहां रखूं?
कहां-कहां रखूं?
सोचकर
उन्मुक्त करों से
तुम पर ही लुटाता रहा
कि तुम आजीवन
बरसाओगी मुझपर
किन्तु....
कहीं कमी रह गई!
(४)
मैं भूल करता रहा
यह समझने की
समझ रहा हूं तुम्हें
सबकुछ दे रहा हूं,
न्योछावर कर रहा हूं
तुम पर, वह सब
जो चाहिए तुम्हें
अंध प्रेम में
लेकिन देख नहीं पाया
तुम्हें कोई ग़म था
कहीं कुछ कम था!
(५)
फिर एक दिन
अचानक तुमने कह दिया-
मुझे जाना है।
हठात् जैसे
सबकुछ छिन गया पल में।
पर तुम्हारी खुशी के आगे नत
खुश होने का दिखावा करता रहा
रोकना मुनासिब नहीं समझा
शायद मेरा प्रेम ही कम था!
(६)
सच कहूं
बहुत तकली$फ हुई थी तब
परकटे पाखी की मानिंद
हृदय तड़प उठा था,
अंग-प्रत्यंग थरथराया था
कांपते अधरों की कसमसाहट
बदहवास चेहरे की रंगत
और उखड़ती सांसों को
सिर्फ मैंने ही महसूस किया
क्या तुमने महसूस किया यह सब?
(7)
अनगिनत प्रयास किए
बुलाता रहा, मनाता रहा
फिर लौट आओगी
सोचकर
तुम्हें जाने दिया
और बाट जोहता रहा
तुम्हारे आगमन की
मन के एक कोने में
पता नहीं क्यों
एक आस कायम थी
शायद अब भी है
आओगी किसी दिन
मैं तो चाहता था
आना ही नहीं चाहा तुमने
यत्न तो बहुतेरे किए
तुमने भी कहां बताया
क्या कम था?
मेरा प्रेम, मेरी निष्ठा या मेरा समर्पण?
(७)
तुम क्या गईं
साथ खुशियां, मेरी नींद गई
मेरा चैन, सबकुछ गया
निविड़ अंधकार में
बेतहाशा भागता रहा
सड़कों पर, कभी गलियों में
नगर-नगर
कभी डीटीसी बस
कभी मेट्रो में
किन्तु....
एक बार भी नहीं पूछा
यह पागलपन क्यों?
(८)
दर्द से नाता तो जोड़ा
पर निबाहना मुश्किल लगा
इधर जेहन में
यादों के दीप जलते ही
भयंकर टीस उभरती
आहिस्ता-आहिस्ता
घुलता रहा
चंद $कदम दूर खड़ी मौत
जब बुला रही थी मुझे
तुम दूर
मुझसे और दूर जा रही थी।
एक बार भी पलट कर देखा?
(९)
फिर मैंने दर्द से दोस्ती की
प्रीत बढ़ती गई
दिन बीते
मास और अब बरस भी
तेरे ख्याल मात्र से ही
हृदय आज भी दुखता है
क्योंकि, कहीं कुछ तो है!
(१०)
तेरी यादों के संदल
भुजंग बनकर लिपटते हैं
जकड़ लेते हैं
तब बदन में
फिर वही टीस उभरती है
पलकों की $कतारें
नम हो जाती हैं
लहू निचुड़ जाता है
और बेजान शरीर
निढ़ाल जमीन पर गिर पड़ता है
धम्म
जानती हो क्यों?
क्योंकि, शायद याद कर रही होती हो।
(११)
देखो न
दीवारें पसीज गईं
बूंद-बूंद नीर से
उतर रहीं पपडिय़ां
नहीं पसीजा मगर
तुम्हारा हृदय प्रिये!
(१२)
दर्द तब भी था
जब तुम नहीं थीं
अब भी है
जब तुम नहीं हो
आगे भी रहेगा
नहीं रहोगी मगर तुम
कभी-कभी सोचता हूं
वे दिन अच्छे थे
या ये दिन।
2 comments:
बाबा आपने शब्दों का कत्लेआम मचा दिया...विरह का ऐसा भाव, आह! मन नहीं भर रहा एक बार पढऩे से।
bahut he khoob likha hai,bahut he marmsparshi hai!
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