क्यों पीछा करती हैं
ये परछाइयां
कभी उजाले में भटक कर
बिखर जाती हैं
कभी स्याह रातों में
गुम हो जाती हैं
किन्तु...
सदैव इर्द-गिर्द ही
रेंगती हैं परछाइयां
कभी आगे
...कभी पीछे!
कितने यत्न किये
नहीं छोड़ती पीछा।
मन आशंकित
स्वयम से ही सशंकित
पूछें तो किससे
आखिर क्यों पीछा करती हैं
ये परछाइयां।
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