दिवस बीते,
मास, बरस भी अब।
समय का सफर रुका कब?
तुमने देखा
कारवाँ बारह मासों का!
इन दिनो में उड़ता रहा
संगमरमरी ख्वाबों के पर लगाये
हेम आकाश की ऊँचाइयों में
भटकता रहा धरातल की गहराइयों में
समय मिला नहीं!!
अनंत ठहरावों के बीच
जमीं आंखें
उन अविस्मरनीय पलों को ढूँढती
मुझसे बीते कल लाने को कहती!
अब तुम्हीं बताओ ...
तुम्हारे साथ व्यतीत पल
वापस कैसे लाऊँ?
ह्रदय की गहराइयों में
अतीत की बूँद-बूँद
बरसती असमय बौछारें
ऐसे नें तुम्हारी अनुपस्थिति ...
कहो न!
क्या यह संभव है?
जैसे भी हो ...
वो पल लौटा दो
मेरा कल लौटा दो...
1 comment:
nice poem!
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