मैंने कुछ नहीं माँगा तुमसे
वजूद का संकट तो
तुम्हारे लिए भी तो है!
पर इच्छा पर दिन कटते हैं तुम्हारे!
तुम क्या दोगे?
हाँ ...
एक परंपरा दे सकते हो
अन्धविश्वास का!
विस्तार दे सकते हो
भ्रष्टाचार को!
वृहत रूप में चढ़ावा पाते हो
बगैर इसके भी
सुनो कभी
किसी की पुकार!
तब मांगूंगा तुमसे
अपना अंश
और तुम देना मुझे
तभी मिटेगा
मन से मेरे
तुम्हारी निष्ठुरता का दंश!
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