January 29, 2012

क्षणिकाएं

पत्थर के खुदा, पत्थर के सनम
लो पटक दिया सर, निकल गया दम.
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स्मृतियों के दुरूह अरण्य में
अपरिणीता कहाँ से आई!
समर्पिता बाँहों के
कितनी सौगातें लाई?
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विधाता! तेरे फैसले बड़े सख्त हैं
पर उससे भी सख्त
तेरी दी ये जान है.
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रब्बा! ये रूह पनाह मांगती है
और ज़िन्दगी
हर पल का हिसाब मांगती है.

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दन्त हीन वृद्ध
विष हीन नख
घर में एक पतोहू
रात-दिन चख-चख...

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माँ! मुझे जनते ही तुमने
थोड़ा नमक क्यों नहीं चखाया?
 तुम्हारे ही कुल की हूँ
पर कुल दीपक क्यों नहीं?

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