October 14, 2010

बाँध दिया है खुद को

एक डोर से बाँध दिया है खुद को
जब लगे दूर जा रहा हूँ
आहिस्ता अपनी ओर खींचना
रिश्तों को ताज़ा रखना!
न मानूँ, डांटना-फटकारना
कभी प्यार से समझाना...
मैं बहती नदी की मनमौज धारा हूँ
हर बार दूर भागूँगा
नयी राह बनाना मेरी फितरत है.
हमारे रिश्तों को
तुम्ही संभाल के रखना
मैं उसपर जमा गर्द धोता रहूँगा
राह गर मुश्किल लगे कहना
मैं बिछ जाऊंगा.
न कभी दूर होना, न मुझे दूर होने देना,
क्योंकि मैंने खुद को
एक बंधन में बाँध जो दिया है...

2 comments:

ASHOK BAJAJ said...

बहुत अच्छी प्रस्तुति .
श्री दुर्गाष्टमी की बधाई !!!

रवि धवन said...

बाबा बेहतरीन लिखा है। मुझे लगता है कि ये अब तक की आपकी बेस्ट रचनाओं में शामिल होनी चाहिए।