February 24, 2010

सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी : लोकतन्‍त्र का लबादा खूंटी पर, दमन का चाबुक हाथ में

ज़रूरी नहीं फ़ासीवाद केवल धर्म का चोला पहनकर ही आए, वह लोकतन्‍त्र का लबादा ओढ़कर भी आ सकता है। और ऐसा हो भी रहा है। चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद कई लोगों ने खुशी जाहिर की थी और उन्‍हें लगा था कि चुनावों ने फासिस्‍ट भाजपा को हाशिये पर धकेल दिया है। उस समय भी हमने इस संबंध  में लिखा था कि चुनावों में भाजपा की हार से ही फासीवाद की हार तय नहीं होती और यह कि हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सेवानिवृत्त होकर ''बुद्धत्त्‍व'' प्राप्त करने के बाद पूर्व राष्ट्रपति वेंकटरमण ने भी यह वक्तव्य दिया था कि वर्तमान आर्थिक नीतियों को एक फासिस्ट राजनीतिक ढांचे में ही पूरी तरह लागू किया जा सकता है। अब परिस्थितियां अक्षरक्ष: इसे स‍ाबित कर रही हैं। एक तरफ़ तो कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए सरकार कल्‍याणकारी योजना के नाम पर जनता के बीच उसी से लूटी गई संपदा के टुकड़े फेंक रही है, तो दूसरी तरफ नक्‍सलवाद, आतंकवाद के खात्‍मे के नाम पर आम जनता और उसके हक की लड़ाई लड़ने वालों को का दमन कर रही है उन्‍हें सलाखों के पीछे डाल रही है। पत्रकार सीमा आज़ाद की गिरफ्तार भी इसी दमन की एक अगली कड़ी है। नक्‍सलवाद से पूरी तरह वैचारिक विरोध रखने वाले संगठन पीयूसीएल की सदस्‍य और पत्रकार सीमा आज़ाद की गिरफ्तारी अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर हमला तो है ही, साथ ही जनपक्षधर राजनीति करनों वालों और जनता के पक्ष में संघर्ष करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश भी है। 'बर्बरता के विरुद्ध' सरकार के इस क़दम का विरोध करता है और पत्रकार सीमा आज़ाद के रिहाई की मांग करता है।

सीमा आज़ाद मानवाधिकार संस्था पी.यू.सी.एल. से सम्बद्ध हैं, साथ ही द्वैमासिक पत्रिका "दस्तक" की सम्पादक हैं और उनके पति विश्वविजय वामपन्थी रुझान वाले सामाजिक कार्यकर्ता हैं. अपनी पत्रिका "दस्तक" में सीमा लगातार मौजूदा जनविरोधी सरकार की मुखर आलोचना करती रही है. सीमा ने पत्रिका का सम्पादन करने के साथ-साथ सरकार के बहुत-से क़दमों का कच्चा-चिट्ठा खोलने वाली पुस्तिकाएं भी प्रकाशित की हैं. इनमें गंगा एक्सप्रेस-वे, कानपुर के कपड़ा उद्योग और नौगढ़ में पुलिसिया दमन से सम्बन्धित पुस्तिकाएं बहुत चर्चित रही हैं. हाल ही में, १९ जनवरी को सीमा ने गृह मन्त्री पी चिदम्बरम के कुख्यात "औपरेशन ग्रीनहण्ट" के खिलाफ़ लेखों का एक संग्रह प्रकाशित किया. ज़ाहिर है, इन सारी वजहों से सरकार की नज़र सीमा पर थी और ६ तारीख़ को पुलिस ने सीमा और विश्वविजय को गिरफ़्तार कर लिया और जैसा कि दसियों मामलों में देखा गया है उनसे झूठी बरामदगियां दिखा कर उन पर राजद्रोह का अभियोग लगा दिया.
हमारी तथाकथित लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनी नीतियों के विरोधियों को कभी "आतंकवादी" और कभी "नक्सलवादी" या "माओवादी" घोषित करके जेल की सलाखों के पीछे ठूंसने का वही फ़र्रुख़ाबादी खेल खेलने लगी है. इस खेल में सब कुछ जायज़ है -- हर तरह का झूठ, हर तरह का फ़रेब और हर तरह का दमन. और इस फ़रेब में सरकार का सबसे बड़ा सहयोगी है हमारा बिका हुआ मीडिया. इसीलिए हैरत नहीं हुई कि सीमा की गिरफ़्तारी के बाद अख़बारों ने हर तरह की अतिरंजित सनसनीख़ेज़ ख़बरें छापीं कि ट्रक भर कर नक्सलवादी साहित्य बरामद हुआ है, कि सीमा माओवादियों की "डेनकीपर" (आश्रयदाता) थी.
इस संबंध में विस्‍तृत जानकारी के लिए देखें युवा पत्रकार विजय प्रताप का ब्‍लॉग नई पीढ़ी। (इस पोस्‍ट का कुछ अंश उनके ब्‍लॉग से ही लिया गया है)